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शेर
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
शेर
मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
आँख भी मूँद के गुज़रूँ तो गुज़र जाता हूँ
अहमद कमाल परवाज़ी
शेर
तू अपने साथ साथ में पर्दा-नशीं को भी
रुस्वा करेगा ऐ दिल-ए-ख़ाना-ख़राब क्या