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शेर
वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है
तुम ने क्यूँ सौंपी है मेरे घर की दरबानी मुझे
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
न आई बात तक भी मुँह पे रोब-ए-हुस्न-ए-जानाँ से
हज़ारों सोच कर मज़मून हम दरबार में आए
मर्दान अली खां राना
शेर
कहिए क्यूँकर न उसे बादशह-ए-किश्वर-ए-हुस्न
कि जहाँ जा के वो बैठा वहीं दरबार लगा
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
ज़माने के दरबार में दस्त-बस्ता हुआ है
ये दिल उस पे माइल मगर रफ़्ता रफ़्ता हुआ है