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नज़्म
न सहरा-ज़ादों के नस्ली का ही उन की गिर्द-ए-ख़बर को पहुँचे
हरीम-ए-महमिल में वो अमानत का पासबाँ हूँ
अली अकबर नातिक़
ग़ज़ल
हमारे सामने कुछ ज़िक्र ग़ैरों का अगर होगा
बशर हैं हम भी साहब देखिए नाहक़ का शर होगा
आग़ा अकबराबादी
ग़ज़ल
'सहबा' उस कूचे में न जाना शायद पत्थर बन जाओ
देखो उस साहिर की गलियाँ जादू करने वाली हैं
सहबा अख़्तर
ग़ज़ल
अज़ीज़ हामिद मदनी
ग़ज़ल
मेरी सहरा-ज़ाद मोहब्बत अब्र-ए-सियह को ढूँढती है
एक जनम की प्यासी थी इक बूँद से ताज़ा-दम न हुई