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ग़ज़ल
ख़ाक से पैदा हुए हैं देख रंगा-रंग गुल
है तो ये नाचीज़ लेकिन इस में क्या क्या चीज़ है
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
ये आलम क्या है इक मजमूआ' है नाचीज़ ज़र्रों का
ये दुनिया क्या है इक तरकीब अज्ज़ा-ए-परेशाँ की
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
मैं तो इक ज़र्रा-ए-नाचीज़ हूँ और कुछ भी नहीं
वो जो सूरज है मिरे नाम से जलता क्यूँ है
हफ़ीज़ बनारसी
ग़ज़ल
कल मैं मिल-जुल के रहे जुज़ का उसी में है वक़ार
फ़र्द नाचीज़ है गर शामिल-ए-जम्हूर नहीं
दत्तात्रिया कैफ़ी
ग़ज़ल
आप के ख़्वाब अपनी आँखों में सजा ले शौक़ से
बंदा-ए-नाचीज़ को इतनी इजाज़त बख़्शिए