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ग़ज़ल
आ गिरा ज़िंदा शमशान में लकड़ियों का धुआँ देख कर
इक मुसाफ़िर परिंदा कई सर्द रातों का मारा हुआ
मंसूर आफ़ाक़
ग़ज़ल
इस क़दर खाए हैं यारों के बिछड़ जाने के दाग़
दिल नहीं अब एक ख़ाकिस्तर-शुदा शमशान है
ज्ञान चंद जैन
ग़ज़ल
कई अरमान मुझ में तोड़ कर दम जी रहे होंगे
मुझे ख़ुद दफ़्न होना है कहीं शमशान होगा क्या