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ग़ज़ल
जब कभी दैर-ओ-हरम टकराए मय-ख़ानों के साथ
सर्फ़-ए-गर्दिश कर दिया साक़ी ने पैमानों के साथ
बिस्मिल सईदी
ग़ज़ल
कहो दैर-ओ-हरम या नाम अपना आस्ताँ रख दो
सर-ए-तस्लीम ख़म है तुम जहाँ चाहो वहाँ रख दो
कैफ़ी चिरय्याकोटी
ग़ज़ल
फ़ासला दैर-ओ-हरम के दरमियाँ रह जाएगा
चाक सिल जाएँगे ये ज़ख़्म-ए-निहाँ रह जाएगा
प्रियदर्शी ठाकुर ख़याल
ग़ज़ल
हाइल हैं मिरी राह में ये दैर-ओ-हरम क्यों
बढ़ता हूँ तो हर गाम पे रुकते हैं क़दम क्यों