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ग़ज़ल
गो सियह-बख़्त हैं हम लोग पे रौशन है ज़मीर
ख़ुद अँधेरे में हैं दुनिया को दिखाते हैं चराग़
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ज़मीर-ए-पाक ओ निगाह-ए-बुलंद ओ मस्ती-ए-शौक़
न माल-ओ-दौलत-ए-क़ारूँ न फ़िक्र-ए-अफ़लातूँ
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मिरे हम-सफ़ीर बुलबुल मिरा तेरा साथ ही क्या
मैं ज़मीर-ए-दश्त-ओ-दरिया तू असीर-ए-आशियाना
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
मौक़े तो हम तक भी आए ख़ूब कमा खा लेते हम
लेकिन एक ज़मीर था भीतर अल्लाह की निगरानी में