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ग़ज़ल
'आरिश' सुराही-दार सी गर्दन के सेहर में
ज़मज़म सी गुफ़्तुगू को भी रम गिन रहा हूँ मैं
सरफ़राज़ आरिश
ग़ज़ल
किसी के लहजे की चाट ऐसी लगी कि अपना शिआ'र 'आरिश'
मुकालमे के जुनूँ में ख़ुद पर उदास नज़्में उतारना था
सरफ़राज़ आरिश
ग़ज़ल
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
ये क्यूँ बाक़ी रहे आतिश-ज़नो ये भी जला डालो
कि सब बे-घर हों और मेरा हो घर अच्छा नहीं लगता
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
अब वो फिरते हैं इसी शहर में तन्हा लिए दिल को
इक ज़माने में मिज़ाज उन का सर-ए-अर्श-ए-बरीं था