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ग़ज़ल
अक्स-ए-रुख़्सार ने किस के है तुझे चमकाया
ताब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
ऐ रहबर-ए-कामिल चलने को तय्यार तो हूँ पर याद रहे
उस वक़्त मुझे भटका देना जब सामने मंज़िल आ जाए
बहज़ाद लखनवी
ग़ज़ल
कहीं है ईद की शादी कहीं मातम है मक़्तल में
कोई क़ातिल से मिलता है कोई बिस्मिल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
इज्ज़-ए-गुनाह के दम तक हैं इस्मत-ए-कामिल के जल्वे
पस्ती है तो बुलंदी है राज़-ए-बुलंदी पस्ती है
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
ये तिरा जमाल-ए-कामिल ये शबाब का ज़माना
दिल-ए-दुश्मनाँ सलामत दिल-ए-दोस्ताँ निशाना
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
नहीं ये फ़िक्र कोई रहबर-ए-कामिल नहीं मिलता
कोई दुनिया में मानूस-ए-मिज़ाज-ए-दिल नहीं मिलता
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
लगता नहीं कहीं भी मिरा दिल तिरे बग़ैर
दोनों जहाँ नहीं मिरे क़ाबिल तिरे बग़ैर
नादिर शाहजहाँ पुरी
ग़ज़ल
अब ज़बाँ भी दे अदा-ए-शुक्र के क़ाबिल मुझे
दर्द बख़्शा है अगर तू ने बजाए-दिल मुझे