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ग़ज़ल
जिस दीपक को हाथ लगा दो जलें हज़ारों साल
जिस कुटिया में रात बिता दो ताज-महल हो जाए
क़ैसर-उल जाफ़री
ग़ज़ल
सिमट आती थी किस अपनाइयत के साथ वो कुटिया
इमारत में तो हम दुबके हुए मालूम होते हैं
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
ग़ज़ल
मुझे तो प्यार वाली अपनी कुटिया अच्छी लगती है
जो ऐवाँ नफ़रतें दे उस का दर अच्छा नहीं लगता
अनवार फ़िरोज़
ग़ज़ल
कुटिया से बाला-तर रहे ख़ौफ़-ओ-हिरास-ओ-ग़म
ख़तरे हवेलियों में रंगोली में आ गए