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ग़ज़ल
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
यही इक शग़्ल रखना है अज़िय्यत के दिनों में भी
किसी को भूल जाना है किसी को याद करना है
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
ब-वक़्त-ए-सर-निगूनी है तसव्वुर इंतिज़ारिस्ताँ
निगह को आबलों से शग़्ल है अख़्तर-शुमारी का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
न क़ील-ओ-क़ाल से मतलब न शग़्ल-अश्ग़ाल से मतलब
मुराक़िब अपने रहते हैं का कर अपनी गर्दन हम
फैज़ दकनी
ग़ज़ल
बोस-ओ-कनार-ओ-वस्ल-ए-हसीनाँ है ख़ूब शग़्ल
कमतर बुज़ुर्ग होंगे ख़िलाफ़ इस ख़याल के
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
दिल दे के रहा गिर्या-ए-ख़ूनी का मुझे शग़्ल
बाक़ी था जिगर सो उसे यूँ कहा गईं आँखें