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ग़ज़ल
क्या जाने दाब सोहबत अज़ ख़्वेश रफ़्तगाँ का
मज्लिस में शैख़-साहिब कुछ कूद जानते हैं
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
उस ने पेड़ से कूद के जाने कितने ग़ोते खाए
बंदर को जब लगा नदी में गिरा हुआ है चाँद
बदीउज़्ज़माँ ख़ावर
ग़ज़ल
फ़रोग़-ए-सनअत-ए-क़द-आवरी का मौसम है
सुबुक हुए पे भी निकला है क़द्द-ओ-क़ामत क्या
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
ये पीरान-ए-कलीसा-ओ-हरम ऐ वा-ए-मजबूरी
सिला इन की कद-ओ-काविश का है सीनों की बे-नूरी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
नासिर निज़ामी
ग़ज़ल
बज़्म-ए-मय बे-ख़ुद-ओ-बे-ताब न क्यूँ हो साक़ी
मौज-ए-बादा है कि दर्द उठता है पैमानों में
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
सुना ये है कि सुबुक हो चली है क़ीमत-ए-हर्फ़
सो हम भी अब क़द-ओ-क़ामत में घट के देखते हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
शोख़-ओ-शादाब-ओ-हसीं सादा-ओ-पुरकार आँखें
मस्त-ओ-सरशार-ओ-जवाँ बे-ख़ुद-ओ-होशियार आँखें
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
मंज़िल-ए-इश्क़ से गुज़र बे-ख़ुद-ओ-मस्त-ओ-बे-ख़बर
चोट लगे तो उफ़ न कर दिल को दबा के भूल जा