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ग़ज़ल
हमारी सादा-लौही थी ख़ुदा-बख़्शे कि ख़ुश-फ़हमी
कि हर इंसान की सूरत को मा-फ़ौक़-उल-बशर जाना
गुलज़ार देहलवी
ग़ज़ल
फ़ौक़ हीरे से नहीं है मेरी जाँ याक़ूत को
क्यूँ रंगे हैं आप ने मेहंदी से सारे हाथ पाँव
आग़ा अकबराबादी
ग़ज़ल
ऐ 'फ़ौक़' मैं हूँ इस लिए मुहताज-ए-रिफ़ाक़त
तन्हा रह-ए-मंज़िल में कोई छोड़ गया है