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उमीद-ए-मेहर पर इक हसरत-ए-दिल हम भी रखते थे

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम

उमीद-ए-मेहर पर इक हसरत-ए-दिल हम भी रखते थे

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम

MORE BYमिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम

    उमीद-ए-मेहर पर इक हसरत-ए-दिल हम भी रखते थे

    तमन्ना वस्ल की माह-ए-कामिल हम भी रखते थे

    कभी गुलज़ार दाग़-ए-इश्क़ से दिल हम भी रखते है

    कभी इक ताज़ा गुलशन अनादिल हम भी रखते थे

    किसी दिन तो वो बहर-ए-हुस्न कर ज़ेब-बर होता

    कि आग़ोश-ए-तमन्ना शक्ल-ए-साहिल हम भी रखते थे

    अलग तू बज़्म से उठ कर जो सुन लेता तो कह देते

    कि कुछ कुछ इल्तिजा ज़ेब-ए-महफ़िल हम भी रखते थे

    हमें बे-मौत क्यूँ मारा अजल तू किस लिए आई

    हवा-ए-बोसा-ए-शमशीर-ए-क़ातिल हम भी रखते थे

    हमारे दिल का उक़्दा क्यूँ ग़ुंचा-दहन खोला

    हवस बोसे की थी थोड़ी सी मुश्किल हम भी रखते थे

    करें अब क्या कहाँ ढूँढें गँवाया कू-ए-गेसू में

    कभी यादश-ब-ख़ैर हमदमो दिल हम भी रखते थे

    हमारा इम्तिहाँ क़द्र-अंदाज़ लाज़िम था

    दिल-ए-मजरूह-ओ-मुज़्तर जान-ए-बिस्मिल हम भी रखते थे

    किया पामाल उस को क्यूँ तुम ने साथ सब्ज़े के

    तुम्हारे ज़ेर-ए-पा जान-ए-जाँ दिल हम भी रखते थे

    नहीं अब कसरत-ए-दाग़-ए-जुनूँ से लाएक़-ए-हदिया

    कभी दिल पेशकश करने के क़ाबिल हम भी रखते थे

    हक़ारत से देखो आज हम को परी-रूयो

    कभी तुम सा कोई ज़ोहरा-शमाइल हम भी रखते थे

    'अजब है क्या हुई उल्फ़त वो जाँ दोनों जानिब की

    यही दिल तुम भी रखते थे यही दिल हम भी रखते थे

    यूँही शब भर जला करते थे याद-ए-शोला-ए-रुख़ में

    यही सोज़िश कभी शम'-ए-महफ़िल हम भी रखते थे

    लब-ए-जाँ-बख़्श पर क्या फ़ौक़ देते चश्म-ए-फ़त्ताँ को

    कि 'अंजुम' कुछ तमीज़-ए-हक़्क़-ओ-बातिल हम भी रखते थे

    स्रोत:

    Deewan-e-Anjum(website) (Pg. 156)

    • लेखक: मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम
      • संस्करण: 1959
      • प्रकाशक: राजा राम कुमार बुक डिपो, लखनऊ
      • प्रकाशन वर्ष: 1959

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