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ग़ज़ल
ज़ख़्म सिलवाने से मुझ पर चारा-जुई का है तान
ग़ैर समझा है कि लज़्ज़त ज़ख़्म-ए-सोज़न में नहीं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मक़्सद-ए-इश्क़ हम-आहंगी-ए-जुज़्व-ओ-कुल है
दर्द ही दर्द सही दिल बू-ए-दम-साज़ तो दे
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
तमन्ना-ए-मुहाल-ए-दिल को जुज़्व-ए-ज़िंदगी कर के
फ़साना ज़ीस्त का पेचीदा करता जा रहा हूँ मैं
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
रिंद ख़ाली हाथ बैठे हैं उड़ा कर जुज़्व ओ कुल
अब न कुछ शीशे में है बाक़ी न पैमाने में है
असग़र गोंडवी
ग़ज़ल
वो जिस का इश्क़ मिरा जुज़्व-ए-रूह बन गया था
उसी ने मुझ से मोहब्बत भी इख़्तियारी की
राकिब मुख़्तार
ग़ज़ल
मिरी बेताबियाँ भी जुज़्व हैं इक मेरी हस्ती की
ये ज़ाहिर है कि मौजें ख़ारिज अज़ दरिया नहीं होतीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
दिल-आज़ारी ने तेरी कर दिया बिल्कुल मुझे बे-दिल
न कर अब मेरी दिल-जूई कि दिल-जूई से क्या हासिल
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
जुज़्व-ए-दिल बन के समाती है मोहब्बत दिल में
ये वो काँटा है कि है और खटकता भी नहीं