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ग़ज़ल
क्या कहूँ तारीकी-ए-ज़िन्दान-ए-ग़म अंधेर है
पुम्बा नूर-व-सुब्ह से कम जिस के रौज़न में नहीं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
ज़िया-ए-शम्स भी मौजूद है नूर-ए-क़मर भी है
बसीरत ही न हो तो रौशनी से कुछ नहीं होता
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
नूर-ए-सहर ने निकहत-ए-गुल ने रंग-ए-शफ़क़ ने कह दी बात
कितना कितना मेरी ज़बाँ पर क़ुफ़्ल लगाया लोगों ने
कैफ़ भोपाली
ग़ज़ल
क्या अजब कार-ए-तहय्युर है सुपुर्द-ए-नार-ए-इश्क़
घर में जो था बच गया और जो नहीं था जल गया
सलीम कौसर
ग़ज़ल
सूफ़ी यही है नूर-ए-सवाद-ए-हिजाब-ए-क़ल्ब
ज़ुल्मत हुई जो सीना-ए-सोज़ाँ के दूद में
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
वो तब'-ए-यास-परवर ने मुझे चश्म-ए-अक़ीदत दी
कि शाम-ए-ग़म की तारीकी को भी नूर-ए-सहर जाना