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ग़ज़ल
मुझे उल्फ़त है सुन्नी से भी शीआ' से भी यारी है
अखाड़े में दिखा सकते हैं दिलकश बाँकपन दोनों
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
इश्क़ में सर फोड़ना भी क्या कि ये बे-मेहर लोग
जू-ए-ख़ूँ को नाम दे देते हैं जू-ए-शीर का