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ग़ज़ल
ऐसे आहु-ए-रम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी
सेहर किया ए'जाज़ किया जिन लोगों ने तुझ को राम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ख़िश्त पुश्त-ए-दस्त-ए-इज्ज़ ओ क़ालिब आग़ोश-ए-विदा'अ
पुर हुआ है सैल से पैमाना किस ता'मीर का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
इज्ज़ से और बढ़ गई बरहमी-ए-मिज़ाज-ए-दोस्त
अब वो करे इलाज-ए-दोस्त जिस की समझ में आ सके
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
यूँ भी कम-आमेज़ था 'मोहसिन' वो इस शहर के लोगों में
लेकिन मेरे सामने आ कर और भी कुछ अंजान हुआ
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
'बर्क़' उफ़्तादा वो हूँ सल्तनत-ए-आलम में
ताज-ए-सर इज्ज़ से नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है