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ग़ज़ल
ऐ बे-दरेग़ ओ बे-अमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ
हम को तिरी वहशत सही हम को सही सौदा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छुपा या'नी
इन सूराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
इस दिल के दरीदा दामन को देखो तो सही सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली का फैलाना क्या
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
सबा अकबराबादी
ग़ज़ल
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं