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ग़ज़ल
जिस तरफ़ भी चल पड़े हम आबला-पायान-ए-शौक़
ख़ार से गुल और गुल से गुलसिताँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
ये कह कर आबला-पा रौंदते जाते हैं काँटों को
जिसे तलवों में कर लें जज़्ब उसे सहरा समझते हैं