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ग़ज़ल
न इतने क़िस्से न जंग होती पियारे तेरे मिलाप ऊपर
रक़ीब आपी से ज़हर खाने जो वस्ल का तू पयाम करता
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
मेरे बाबा मेरी अम्माँ मेरी आपी के सिवा
है मिला इंसाफ़ भी मुझ को यहाँ तो क्या हुआ
मोहम्मद फ़य्याज़ हसरत
ग़ज़ल
दर्द-ए-हिज्राँ से ब-तंग आपी हूँ नासेह से कहो
ज़ख़्म पर मेरे न छिड़के ये दबंग और नमक
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
कोई होता है संग-ए-सीना ख़ुसरव से रक़ीबों का
हुआ नाहक़ हलाक अपने का आपी कोहकन बाइ'स