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ग़ज़ल
क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख
इक तरफ़ जाने का ग़म है इक तरफ़ आने का दुख
अरशद जमाल सारिम
ग़ज़ल
ये ख़ाकी पैरहन इक इस्म की बंदिश में रहता है
ज़माना हर घड़ी वर्ना नई साज़िश में रहता है
अरशद जमाल सारिम
ग़ज़ल
दिखाती है जो ये दुनिया वो बैठा देखता हूँ मैं
है तुफ़ मुझ पर तमाशा-बीन हो कर रह गया हूँ मैं
अरशद जमाल सारिम
ग़ज़ल
पलट कर देखने का मुझ में यारा ही नहीं था
नहीं ऐसा कि फिर उस ने पुकारा ही नहीं था
अरशद जमाल सारिम
ग़ज़ल
किश्त-ए-एहसास में थोड़ा सा मिला लेंगे तुझे
फिर नई पौद की सूरत में उगा लेंगे तुझे
अरशद जमाल सारिम
ग़ज़ल
नित-नए नक़्श से बातिन को सजाता हुआ मैं
अपने ज़ाहिर के ख़द-ओ-ख़ाल मिटाता हुआ मैं
अरशद जमाल सारिम
ग़ज़ल
जुड़े हुए हैं परी-ख़ाने मेरे काग़ज़ से
जो उठ रहे हैं ये अफ़्साने मेरे काग़ज़ से