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ग़ज़ल
महफ़िल में तुम अग़्यार को दुज़-दीदा नज़र से
मंज़ूर है पिन्हाँ न रहे राज़ तो देखो
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
अग़्यार का शिकवा नहीं इस अहद-ए-हवस में
इक उम्र के यारों ने भी दिल तोड़ दिया है
महेश चंद्र नक़्श
ग़ज़ल
क्या कहिए नसीबों को कि अग़्यार का शिकवा
सुन सुन के वो चुपका है कि मैं कुछ नहीं कहता
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
थी यारों की बहुतात तो हम अग़्यार से भी बेज़ार न थे
जब मिल बैठे तो दुश्मन का भी साथ गवारा गुज़रे था
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
जो सोहबत-ए-अग़्यार में इस दर्जा हो बेबाक
उस शोख़ की सब शर्म-ओ-हया मेरे लिए है
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
क़िस्सा-ए-साज़िश-ए-अग़्यार कहूँ या न कहूँ
शिकवा-ए-यार-ए-तरह-दार करूँ या न करूँ