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ग़ज़ल
कर रहे थे अपना क़ब्ज़ा ग़ैर की इम्लाक पर
ग़ौर से देखा तो हम भी सख़्त बे-ईमान थे
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
हम इम्लाक-परस्त नहीं हैं पर यूँ है तो यूँही सही
इक तिरे दिल में घर है अपना बाक़ी मुल्क सुलैमाँ का
रईस फ़रोग़
ग़ज़ल
खेंचती रहती है हर लम्हा मुझे अपनी तरफ़
जाने क्या चीज़ है जो पर्दा-ए-अफ़्लाक में है
आलम ख़ुर्शीद
ग़ज़ल
दे वस्ल का तू व'अदा झूटा उन्हों को जा कर
इस बात से जिन्हों की इम्लाक ज़िंदगी है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
आज है तेरी जो दौलत छोड़ भी सकती है साथ
सीम-ओ-ज़र इम्लाक अराज़ी जावेदाँ कुछ भी नहीं