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ग़ज़ल
क्यूँ न वहशत-ए-ग़ालिब बाज-ख़्वाह-ए-तस्कीं हो
कुश्ता-ए-तग़ाफ़ुल को ख़स्म-ए-ख़ूँ-बहा पाया
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ ने उस की दिया काकुल सुम्बुल को रश्क
चश्म-ए-सियह ने लिया चश्म से आहू के बाज
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
ऐ चर्ख़-ए-फ़ित्ना-गर ये रवा है कि हर बरस
सहबा-कशों पे बाज की ठहराए मोहतसिब