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ग़ज़ल
है सर शहीद-ए-इश्क़ का ज़ेब-ए-सिनान-ए-यार
सद शुक्र बारे नख़्ल-ए-वफ़ा बारवर तो है
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
किस की ख़ातिर ज़ाइक़ों की सख़्तियों में हैं समर
और झुक जाती है शाख़-ए-बारवर किस के लिए
मोहम्मद ख़ालिद
ग़ज़ल
हर शजर ऐ दीदा-ए-तर बारवर होता नहीं
हर सदफ़ की गोद में जैसे गुहर होता नहीं
पंडित अमर नाथ होशियार पुरी
ग़ज़ल
क्या क्या बहारें आईं क्या क्या दरख़्त फूले
नख़्ल-ए-दुआ को लेकिन मैं बारवर न देखा