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ग़ज़ल
इल्म के दरिया से निकले ग़ोता-ज़न गौहर-ब-दस्त
वाए महरूमी ख़ज़फ़ चैन लब साहिल हूँ मैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मैं ये जानता था मिरा हुनर है शिकस्त-ओ-रेख़्त से मो'तबर
जहाँ लोग संग-ब-दस्त थे वहीं मेरी शीशागरी रही
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मुझे चाहिए वही साक़िया जो बरस चले जो छलक चले
तिरे हुस्न-ए-शीशा-ब-दस्त से तिरी चश्म-ए-बादा-ब-जाम से
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
क़त्ल करने को मिरे आते हैं वो तेग़-ब-दस्त
मैं समझता हूँ मिरे हक़ में मसीहाई है