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ग़ज़ल
मैं ने कब दावा-ए-इल्हाम किया है 'ताबाँ'
लिख दिया करता हूँ जो दिल पे गुज़रती जाए
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
ग़ज़ल
यार बाँका है मिरा छुट तेग़ नईं करता है बात
उस से ऐ 'ताबाँ' मैं अपना जी बचाऊँ किस तरह
ताबाँ अब्दुल हई
ग़ज़ल
दूँ सारी ख़ुदाई को एवज़ उन के मैं 'ताबाँ'
कोई मुझ सा बता दे तू ख़रीदार बुताँ का
ताबाँ अब्दुल हई
ग़ज़ल
वो ख़ाक समझेंगे राज़-ए-गुल-ओ-समन 'ताबाँ'
जो रंग-ओ-बू को फ़रेब-ए-नज़र समझते हैं
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
ग़ज़ल
'अली' ओ 'तालिब' ओ 'शैदा' ओ 'ताबाँ' 'साक़ी' ओ 'माइल'
हुआ ताराज गुलशन जब ख़िज़ाँ आई बहारों में
साहिर देहल्वी
ग़ज़ल
तुम्हारे इश्क़ से 'ताबाँ' हुआ है शहर में रुस्वा
तुम उस के हाल से अब तक नहीं महरम मियाँ-साहिब
ताबाँ अब्दुल हई
ग़ज़ल
वो कशाकश है कि जीना भी है दूभर 'ताबाँ'
इश्क़ मासूम बहुत हुस्न फ़ुसूँ-कार बहुत
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
ग़ज़ल
ये कहिए ज़ौक़-ए-जुनूँ काम आ गया 'ताबाँ'
नहीं तो रस्म-ओ-रह-ए-आगही ने मारा था