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ग़ज़ल
वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है
बशीर बद्र
ग़ज़ल
बशीर बद्र
ग़ज़ल
'बर्क़' उफ़्तादा वो हूँ सल्तनत-ए-आलम में
ताज-ए-सर इज्ज़ से नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
वो पयम्बर हो कि आशिक़ क़त्ल-गाह-ए-शौक़ में
ताज काँटों का किसे दुनिया ने पहनाया न था
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
वहाँ कितनों को तख़्त ओ ताज का अरमाँ है क्या कहिए
जहाँ साइल को अक्सर कासा-ए-साइल नहीं मिलता