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ग़ज़ल
सुख़न का ये बुज़ुर्गों की ततब्बो बस-कि करता है
निकलती है 'हसन' की बात में इक बू क़दामत की
मीर हसन
ग़ज़ल
ये क़ैद-ओ-क़फ़स इन के ततब्बो’ में बने हैं
ज़िंदाँ थे कहाँ ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर से पहले