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ग़ज़ल
तुफ़ंग ओ तीर तो ज़ाहिर न था कुछ पास क़ातिल के
इलाही उस ने दिल को ताक कर मारा तो क्या मारा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
हिज्र में चटके जो ग़ुंचे हुई आवाज़ तुफ़ंग
सेहन-ए-गुलज़ार है मैदान-ए-सफ़-आराई का
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
नहीं अगर तुफ़ंग ओ तीर ओ तेशा ओ तबर तो क्या
दिल-ए-जवाँ जुनून-ए-मो'तबर हमारे साथ है
मुजीब ख़ैराबादी
ग़ज़ल
मुझ पर वफ़ा की शाम का बुझता सा रंग है
मैं तुझ से तंग हूँ तो ये दिल मुझ से तंग है