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ग़ज़ल
ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की
फ़लक का देखना तक़रीब तेरे याद आने की
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
शिकस्त-ए-तौबा की तक़रीब में झुक झुक के मिलती हैं
कभी पैमाना शीशा से कभी शीशे से पैमाना
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
चाहा था कि उन की आँखों से कुछ रंग-ए-बहाराँ ले लीजे
तक़रीब तो अच्छी थी लेकिन दो आँख मिलाना भूल गए
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
हो न मायूस कि है फ़त्ह की तक़रीब शिकस्त
क़ल्ब-ए-मोमिन का मिरी जान निखरना है यही