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ग़ज़ल
बज़्म-ए-जाँ फिर निगह-ए-तौबा-शिकन माँगे है
लम्स शो'ले का तो ख़ुश्बू का बदन माँगे है
तनवीर अहमद अल्वी
ग़ज़ल
बे-ख़ुद हैं तेरे जल्वा-ए-तौबा-शिकन से हम
हैं बे-नियाज़ बादा-ए-रंज-ओ-मेहन से हम
साहबज़ादा मीर बुरहान अली खां कलीम
ग़ज़ल
'मुश्ताक़' सूफ़ियों में तो ताइब हुआ था कल
सुनता हूँ आज रिंदों में तौबा-शिकन हुआ