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ग़ज़ल
जाने तिरी नहीं के साथ कितने ही जब्र थे कि थे
मैं ने तिरे लिहाज़ में तेरा कहा नहीं किया
जौन एलिया
ग़ज़ल
मैं हूँ भी और नहीं भी अजीब बात है ये
ये कैसा जब्र है मैं जिस के इख़्तियार में हूँ
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
मुमकिन है नाला जब्र से रुक भी सके अगर
हम पर तो है वफ़ा का तक़ाज़ा जफ़ा के ब'अद