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ग़ज़ल
मिरा ये दिल ब-ज़ाहिर मस्लहत-अंदेश है लेकिन
अना हावी अगर हो जुरअत-ए-इंकार रखता है
फ़रहान हनीफ़ वारसी
ग़ज़ल
हमारे सर क़लम होते हैं हम बै'अत नहीं करते
कि हम लोगों में अब भी जुरअत-ए-इंकार बाक़ी है