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ग़ज़ल
जो उट्ठे हैं तो गर्म-ए-जुस्तुजू-ए-दोस्त उट्ठे हैं
जो बैठे हैं तो महव-ए-आरज़ू-ए-यार बैठे हैं
आज़ाद अंसारी
ग़ज़ल
तुम्हें मैं चूम लूँ छू लूँ ज़रा इक शर्म है वर्ना
ये सारी जुस्तुजुएँ हद्द-ए-इम्कानी में रहती हैं
आशू मिश्रा
ग़ज़ल
कभी उट्ठे तो गर्म-ए-जुस्तुजू-ए-दोस्त में उट्ठे
कभी बैठे तो महव-ए-आरज़ू-ए-यार बैठे हैं
अल-हाज अल-हाफीज़
ग़ज़ल
मआल-ए-जुस्तुजू-ए-शौक़-ए-कामिल देख लेता हूँ
उठाते ही क़दम आसार-ए-मंज़िल देख लेता हूँ
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
इज़्तिराब-ए-उम्र बे-मतलब नहीं आख़िर कि है
जुसतुजू-ए-फ़ुर्सत-ए-रब्त-ए-सर-ए-ज़ानू मुझे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ग़ज़ब है जुस्तजू-ए-दिल का ये अंजाम हो जाए
कि मंज़िल दूर हो और रास्ते में शाम हो जाए
शेरी भोपाली
ग़ज़ल
बे-ख़तर हैं सुस्ती-ए-अंदाम से नाज़ुक-मिज़ाज
जुस्तुजू-ए-बादा में शीशों की अंगड़ाई नहीं
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
न तो जुस्तुजू-ए-दवा-ए-दिल न तो चारागर की तलाश है
जो मज़ाक़-ए-ग़म से हो आश्ना मुझे उस नज़र की तलाश है
शफ़ीक़ बरेलवी
ग़ज़ल
मैं जुस्तुजू-ए-कुफ़्र में पहुँचा ख़ुदा के पास
का'बे तक उन बुतों का मुझे नाम ले गया