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ग़ज़ल
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइ'ज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
सुब्ह सवेरे माँ ने पुकारा भागी भागी घर पहुँची
इक जूता था पैर में दूजा ख़्वाब में रख कर भूल गई
समीना साक़िब
ग़ज़ल
मरीज़-ए-'इश्क़ हो मिर्गी हो जूता है 'इलाज इन का
तुम इन दोनों की ये देसी दवाई देखते जाओ