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ग़ज़ल
शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
मुमकिन है अब वक़्त की चादर पर मैं करूँ रफ़ू का काम
जूते मैं ने गाँठ लिए हैं गुदड़ी मैं ने सी ली है
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दौड़ में जितने भी लड़के हैं वो जूते में हैं
मैं बिना पाँव हूँ मुमकिन है पिछड़ सकता हूँ
अमूल्य मिश्रा
ग़ज़ल
रुख़-ए-इंसानियत पर भीगे जूते मार देती है
यहाँ पर भूक अब मासूम बच्चे मार देती है