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ग़ज़ल
उस को था सख़्त इख़्तिलाफ़ ज़ीस्त के मत्न से सो वो
बर-सर-ए-हाशिया रहा और कमाल कर गया
पीरज़ादा क़ासीम
ग़ज़ल
यूँ तो वो शक्ल खो गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल में
फूल है इक खिला हुआ हाशिया-ए-ख़याल में