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ग़ज़ल
ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेना
बहुत हैं फ़ाएदे इस में मगर अच्छा नहीं लगता
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
ये है मय-कदा यहाँ रिंद हैं यहाँ सब का साक़ी इमाम है
ये हरम नहीं है ऐ शैख़ जी यहाँ पारसाई हराम है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
यहाँ एक बच्चे के ख़ून से जो लिखा हुआ है उसे पढ़ें
तिरा कीर्तन अभी पाप है अभी मेरा सज्दा हराम है
बशीर बद्र
ग़ज़ल
यूँ तकब्बुर न करो हम भी हैं बंदे उस के
सज्दे बुत करते हैं हामी जो ख़ुदा होता है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
हामी भी न थे मुंकिर-ए-'ग़ालिब' भी नहीं थे
हम अहल-ए-तज़बज़ुब किसी जानिब भी नहीं थे
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
पूछ न वस्ल का हिसाब हाल है अब बहुत ख़राब
रिश्ता-ए-जिस्म-ओ-जाँ के बीच जिस्म हराम हो गया