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ग़ज़ल
हसीनाओं ने मुझ पर तीर छोड़े उम्र-भर क्या क्या
किया जो ग़ौर तो हर इक नज़र के तीर में तुम थे
अज़हर बख़्श अज़हर
ग़ज़ल
दम-ए-आख़िर मिरी बालीं पे मजमा' है हसीनों का
फ़रिश्ता मौत का फिर आए पर्दा हो नहीं सकता
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
सरापा हुस्न बन जाता है जिस के हुस्न का 'आशिक़
भला ऐ दिल हसीं ऐसा भी है कोई हसीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना