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ग़ज़ल
जौन एलिया
ग़ज़ल
क्यूँ न वहशत-ए-ग़ालिब बाज-ख़्वाह-ए-तस्कीं हो
कुश्ता-ए-तग़ाफ़ुल को ख़स्म-ए-ख़ूँ-बहा पाया
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
राह में उस की चलना है तो ऐश करा दें क़दमों को
चलते जाएँ चलते जाएँ या'नी ख़ातिर-ख़्वाह चलें
जौन एलिया
ग़ज़ल
नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना फिर भी
हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
इलाही कैसे होते हैं जिन्हें है बंदगी ख़्वाहिश
हमें तो शर्म दामन-गीर होती है ख़ुदा होते
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
दिल-ए-बद-ख़्वाह में था मारना या चश्म-ए-बद-बीं में
फ़लक पर 'ज़ौक़' तीर-ए-आह गर मारा तो क्या मारा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
वो हवा-ख़्वाह-ए-चमन हूँ कि चमन में हर सुब्ह
पहले मैं जाता था और बाद-ए-सबा मेरे बा'द
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
ग़ज़ल
क्या शम्अ' के नहीं हैं हवा-ख़्वाह बज़्म में
हो ग़म ही जाँ-गुदाज़ तो ग़म-ख़्वार क्या करें
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
आँखों में दर्द-मंदी होंटों पे उज़्र-ख़्वाही
जानाना वार आई शाम-ए-फ़िराक़-ए-याराँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
कोई आज़ुर्दा करता है सजन अपने को हे ज़ालिम
कि दौलत-ख़्वाह अपना 'मज़हर' अपना 'जान-ए-जाँ' अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
इसी ने मुझ से कहा वज़'-ए-'आशिक़ी को न छोड़
वो ख़्वाह 'इज्ज़ का लम्हा हो या ग़ुरूर का पल
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
है वही बद-मस्ती-ए-हर-ज़र्रा का ख़ुद उज़्र-ख़्वाह
जिस के जल्वे से ज़मीं ता आसमाँ सरशार है