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ग़ज़ल
जाता है दिल हमारा भी हो कर हरीस-ए-ज़ख़्म
उस ख़ूब-रू के हाथ में तलवार देख कर
सैयद जॉन अब्बास काज़मी
ग़ज़ल
ख़ूब-रू जितने हैं आलम में जफ़ाकार हैं सब
याद क्या जानें उन्हें तौर-ए-वफ़ा है कि नहीं
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
इन दिनों हालत तिरी पाता हूँ मैं अपनी सी यार
ख़ूब-रू तुझ सा कोई तेरे मुक़ाबिल क्या हुआ
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
तालिब हैं दिल से हुस्न-ए-मोहब्बत-फ़ज़ा के हम
इस से ज़ियादा और तुझे ख़ूब-रू करें