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ग़ज़ल
भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए
ख़ुमार बाराबंकवी
ग़ज़ल
तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही ख़ुद-कुशी करेगी
जो शाख़-ए-नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना-पाएदार होगा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मैं ख़ुद-कुशी के जुर्म का करता हूँ ए'तिराफ़
अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ मैं
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं
समझ लो साँस लेना ख़ुद-कुशी करना समझते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
यही है ज़िंदगी तो ज़िंदगी से ख़ुद-कुशी अच्छी
कि इंसाँ आलम-ए-इंसानियत पर बार हो जाए
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
ख़ुद-कुशी 'अर्पित' की कोई ज़िक्र के क़ाबिल नहीं
जो भी करना था उसे अब कर चुका कमरे में वो