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ग़ज़ल
शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
ये क्या कम है उस ने बख़्शा एक महकता दर्द मुझे
वो भी हैं जिन को रंगों का इक चमकीला ख़ोल दिया
शकेब जलाली
ग़ज़ल
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तो क्या मैं ने नशे में वाक़ई ये गुफ़्तुगू की थी
मुझे ख़ुद भी नहीं मा'लूम था जो सोचता था मैं
अनवर शऊर
ग़ज़ल
ग़म ने हर इक रास्ते में खोल रक्खा था महाज़
हम भी चेहरे पर हँसी का ख़ोल ले कर डट गए