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ग़ज़ल
कभी ख़ुश हो के करते हो 'सिराज' अपने की जाँ-बख़्शी
कभी उस के बुझा देने कूँ क्या क्या दाव करते हो
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
मचल रहा था दिल बहुत सो दिल की बात मान ली
समझ रहा है ना-समझ की दाव उस का चल गया
अंबरीन हसीब अंबर
ग़ज़ल
है दिल की दाओ घात में मिज़्गाँ से चश्म-ए-यार
है शौक़ उस की टट्टी की ओझल शिकार का
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
दहन का लब का ज़क़न का जबीं का बोसा दो
हमें तो लेने से मतलब कहीं का बोसा दो