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ग़ज़ल
वो खड़ा है एक बाब-ए-इल्म की दहलीज़ पर
मैं ये कहता हूँ उसे इस ख़ौफ़ में दाख़िल न हो
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
जो मुमकिन हो तो पुर-असरार दुनियाओं में दाख़िल हो
कि हर दीवार में इक चोर दरवाज़ा भी रहता है
साक़ी फ़ारुक़ी
ग़ज़ल
जो मेरी आँख से उस जिस्म में दाख़िल हुई होगी
वो लड़की फिर मिरे सीने में जा कर दिल हुई होगी
अर्पित शर्मा अर्पित
ग़ज़ल
चिल्ला-ए-जाँ पर चढ़ा कर आख़िरी साँसों के तीर
मौत की सरहद में दाख़िल ज़िंदगानी हो गई
इक़बाल साजिद
ग़ज़ल
बंद दरवाज़े खुले रूह में दाख़िल हुआ मैं
चंद सज्दों से तिरी ज़ात में शामिल हुआ मैं
इरशाद ख़ान सिकंदर
ग़ज़ल
दिल पे वो वक़्त भी किस दर्जा गिराँ होता है
ज़ब्त जब दाख़िल-ए-फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ होता है
आमिर उस्मानी
ग़ज़ल
समझता है गुनह रिंदी को तू ऐ ज़ाहिद-ए-ख़ुद-बीं
और ऐसे ज़ोहद को हम कुफ़्र में दाख़िल समझते हैं
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
ग़ज़ल
शोर बरपा है कि निकले हो तलाश-ए-ग़म में
मख़्ज़न-ए-ग़म है मिरा दिल यहीं दाख़िल हो जाओ
मुशताक़ सदफ़
ग़ज़ल
कौन चलाता है फिर उस में यारों ये काग़ज़ की कश्ती
बारिश का पानी जब घर के अंदर दाख़िल हो जाता है
संदीप ठाकुर
ग़ज़ल
दाख़िला ममनूअ' लिक्खा था फ़सील-ए-शहर पर
पढ़ तो मैं ने भी लिया था फिर भी दाख़िल हो गया