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ग़ज़ल
मेरी ज़बाँ पर मस्लहतों के पहरे हैं तो फिर क्या है
हक़ के अलम-बरदार हैं अब भी मज़दूर ओ दहक़ान मिरे
कौसर नियाज़ी
ग़ज़ल
मैं वो दहक़ान-ए-जुनूँ-ख़ेज़ हूँ जिस ने अपने
जिस्म के खेत में ज़ख़्मों की शजर-कारी की
लकी फ़ारुक़ी हसरत
ग़ज़ल
खेत में फ़सल-ए-सहर बिकने लगी है फिर से
हम हर इक दाने पे दहक़ान का चेहरा ढूँडें
अब्दुल मतीन जामी
ग़ज़ल
आह दहक़ान-ए-फ़लक की कहूँ क्या बद-तुख़मी
ख़ाक-ए-अदाम में ये नित बोवे है आफ़ात के बीज
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
शिकम की आग में इंसानियत के नाम पर 'ज़ैदी'
कहीं मज़दूर जलते हैं कहीं दहक़ान जलते हैं
अबुल फ़ितरत मीर ज़ैदी
ग़ज़ल
अहमद सलमान
ग़ज़ल
उलझन सी होने लगती थी मुझ को अक्सर और वो यूँ
मेरा मिज़ाज-ए-इश्क़ था शहरी उस की वफ़ा दहक़ानी थी