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ग़ज़ल
हश्र तक होंगे न कुफ़्फ़ार से दीन-दार जुदा
कहीं तस्बीह से होती नहीं ज़ुन्नार जुदा
मुंशी ठाकुर प्रसाद तालिब
ग़ज़ल
ये मुबाहिसे ये मुनाज़रे ये फ़साद-ए-ख़ल्क़ ये इंतिशार
जिसे दीन कहते हैं दीन-दार मिरी रूह पर वही घाव था
शमीम अब्बास
ग़ज़ल
हज़ार अफ़्सोस उम्र खोई न देखा दीन-दार हम ने कोई
है वाइ'ज़ों में फ़साना-गोई मदरसों में चुनीं-चुनाँ है
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
हमारी ख़ल्वतों की धुन दर-ओ-दीवार सुनते हैं
चमन के रंग-ओ-बू की बंदिशों को ख़ार सुनते हैं