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ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
जिन को बड़ा माना था मैं ने 'फ़रहत' वो क्यूँ भूल गए
कुछ गोशे मेरे जीवन के बिल्कुल मेरे ज़ाती थे
फ़रहत ज़ाहिद
ग़ज़ल
लिबास-ए-मर्द-ए-मैदाँ जौहर-ए-ज़ाती किफ़ायत है
नहीं पिरोए पोशिश मा'रके में तेग़-ए-उर्यां को
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
'मुसहफ़ी' को नहीं कुछ वस्फ़-ए-इज़ाफ़ी से तो काम
शेर कहना ज़ि-बस उस का सिफ़त-ए-ज़ाती है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
मिरे अस्लाफ़ सा कोई अमानतदार है 'साबिर'
अगर मसरफ़ हो ज़ाती तो दिया रौशन नहीं मिलता